आदर्श की स्थिति वास्तविक समाज में नहीं पाया जाता: अमित भूषण

द्वीतीय श्रेष्ठ का सिद्धान्त:

समाज में प्रथम श्रेष्ठ(उदाहरण परेटो का अनुकूलतम सिद्धान्त) कुछ भी नहीं होता है। आदर्श केवल आदर्श होता है और उसके बारे में हम केवल कल्पना कर सकते है।  आदर्श की स्थिति के नीचे की जो श्रेष्ठ दशा है वहीँ प्राप्य है। जो प्राप्य है वहीं वास्तविक दशा है। साधारण शब्दों में आदर्श की स्थिति वास्तविक समाज मे नहीं पाया जाता है और जो वास्तविक समाज मे पाया जाता है वह 'प्रथम श्रेष्ठ' न होकर 'द्वीतीय श्रेष्ठ' होता है।

द्वीतीय श्रेष्ठ(लिप्से और लकास्टर) सिद्धान्त कहता है कि 'श्रेष्ठ दशा' के लिए कुछ मान्यताओं का पूरा होना अनिवार्य है और उसमे ऐसी एक भी मान्यता नहीं होता है जो वास्तविक जगत में पूरा होता हो या कभी उनके पूरा होने की सम्भावना हो। उदाहरण के रूप में #रामराज्य ले सकते है। वह राम के समय मे भी अस्तित्व में नहीं हुआ। या गाँधी जी का #ग्रामस्वराज्य गाँधी जी के भी समय मे अस्तित्व में नहीं आया। 
 प्रथम श्रेष्ठ अवास्तविक होता है और लंबे कालखंड में अप्राप्य भी होता है।  फिर वास्तविक जगत में प्राप्य क्या है? लिप्से और लंकास्टर कहते है द्वीतीय श्रेष्ठ प्राप्य है। द्वतीय श्रेष्ठ की मान्यताएं व्यवहारिक होती है। 

द्वीतीय श्रेष्ठ को समझने के लिए प्रजातंत्र का उदाहरण ले सकते है। बहुमत सबका मत नहीं है फिर भी बहुमत का व्यक्ति सत्ता प्राप्त करता है। बहुमत सेकंड बेस्ट है।

राम राज्य को हम प्रथम श्रेष्ठ के रूप में देखते है पर हम जानते है की आधुनिक समय में नारीवादियों और दलित चिंतकों ने राम के निर्विवाद होने पर प्रश्न खड़ा किये है। इस हिसाब से राम राज्य भी सेकंड बेस्ट होगा। यदि कुछ विवादों को छोड़ दे तो राम राज्य प्रथम श्रेष्ठ होगा। या हिन्दू धर्म चिंतन अथवा आध्यात्मिक दृष्टिकोण से वह प्रथम श्रेष्ठ होगा।

खेल भी सेकंड बेस्ट है।  एक खिलाड़ी की दृष्टि से मैं यह सदा चाहूंगा कि मैच जीत जाऊ लेकिन यदि मैं मैच नहीं जीत सका तो मैं चाहूंगा कि ड्रा हो जाये। ड्रा होना मेरे लिए सेकंड बेस्ट होगा।

पंचायत चुनाव भी सेकंड बेस्ट का उदाहरण है। धन या शारीरिक बल अथवा शक्ति संबंधों के आधार पर चुनाव में जीते व्यक्ति भी सेकंड बेस्ट होगा। कुल मिलाकर सेकंड बेस्ट सच्चाई है जबकि हम प्रथम श्रेष्ठ को प्राप्त करना चाहते है।

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