खाद्य सुरक्षा के नैतिक आयाम-अमित भूषण

खाद्य सुरक्षा के नैतिक आयाम

मानव जीवन के विविध आयामों से जुड़े मुद्दों में खाद्य सुरक्षा का मुद्दा अपेक्षाकृत जटिल है। मानव जीवन के लिए अनिवार्य आवश्यकताओं- रोटी, कपड़ा और मकान में 'रोटी' अर्थात, खाद्य सुरक्षा को सबसे पहले गिना जाता है। यही कारण है कि 'भोजन के अधिकार' अर्थात 'खाद्य सुरक्षा' को  मानव जाति के मूलभूत सामाजिक-आर्थिक, राजनीतिक एवं नैतिक अधिकार के रूप में देखा जाता है। यद्यपि समाज और नागरिकों के लिए खाद्य सुरक्षा, राज्य से मांगा गया एक नैतिक दावा है; फिर भी, खाद्य सुरक्षा के नैतिक आयामों पर स्वतंत्र अध्ययन कम ही हुए है। इस आलोक में प्रस्तुत लेख खाद्य सुरक्षा के नैतिक पहलुओं की रूपरेखा को खींचने का प्रयास करता है।

प्राचीन काल में विभिन्न सामाजिक-धार्मिक परम्पराओं में सदावर्त की व्यवस्था का उल्लेख प्राप्त होता है। इस व्यवस्था के तहत राजा या धनाढ्य व्यक्ति समाज में रहने वाले दरिद्र,असहाय,तथा वंचितों के लिए भोजन व्यवस्था का निःशुल्क प्रबंध करते थे। इसका लाभ यह था कि जब किसी व्यक्ति को भोजन उपलब्ध नहीं हो पाता था,तब वह इस सदावर्त में स्वयं तथा अपने परिवार के लिए भोजन का प्रबंध कर लेता था। इस तरह की व्यवस्था मंदिर, मस्जिद,चर्च एवं गुरुद्वारे आदि के माध्यम से संचालित की जाती थी, जिसके लिए वित्तीयन राजा या धनाढ्य व्यक्तियों द्वारा किए गए दान के माध्यम से किया जाता था। ज्यादातर संभावना इस बात की है कि इस प्रकार की नैतिकता का उद्देश्य व्यक्तिगत प्रसिद्धि प्राप्त करना रहा हो। यह व्यवस्था उस मध्यकालीन नैतिकता का का ही विस्तार थी जिसमें समाज का एक वर्ग अपने आप को अन्य वर्ग से अलग दिखाने के लिए इस तरह की व्यवस्था को संचालित कर रहे थे। कालांतर में इस व्यवस्था को धार्मिक संगठन स्वयं संचालित करने लगे। संप्रति इस तरह कि व्यवस्था इसाईयत में सदावर्त, हिन्दूओं और सिखों में भण्डारे और इस्लाम में ज़कात के रूप में संचालित की जाती है। कालांतर में अर्थशास्त्रियों  एवं व्यावहारिक दर्शन शास्त्रियों ने इस व्यवस्था की यह कहकर आलोचना की कि इस इस प्रकार की व्यवस्था एक मुफ्तखोर और आश्रित समाज का निर्माण करती है। 

स्पष्ट है कि प्राचीन काल से चली आ रही सामाजिक-धार्मिक परम्पराओं में दरिद्र, असहाय, पीड़ित अथवा गरीबों के लिए जो दान आधारित भोजन व्यवस्था चली आ रही थी, वह खाद्य सुरक्षा के विचार से मेल नहीं खाती। एक विमर्श के रूप खाद्य सुरक्षा संबंधी विचार का उदय औपनिवेशिक शासन के दौरान पड़े भयावह आकालों की पृष्ठभूमि में होता है। औपनिवेशिक शासन के दौरान विश्वभर में एक के बाद एक भयावह अकाल पड़े। इन अकालों की विभीषिका में लाखों-करोड़ों लोग भूख से मारे गए। क्रूर औपनिवेशिक शासन व्यवस्थाएं माल्थसवादी सिद्धान्त की आड़ लेकर इस भयंकर त्रासदी की जवाबदेही से अपना पल्ला झाड़ रही थीं। माल्थस के अनुसार खाद्यान्न उत्पादन की अपेक्षा जनसंख्या वृद्धि दर सदैव तेज बनी रहती है। दूसरे शब्दों में माल्थस यह कह रहे थे कि यदि जनसंख्या वृद्धि पर नियंत्रण नहीं स्थापित किया गया तो भविष्य में जनसंख्या के लिए खाद्यान्न उपलब्धता और कम होती जाएगी जिसका दुष्परिणाम अकाल के रूप में सामने आएगा। इसी क्रम में आरंभिक अर्थशास्त्रियों ने जनसंख्या और निर्वाह के साधनों  के मध्य संबंधों के विश्लेषण का प्रयास किया था,  परंतु वे भोजन के प्रश्न पर स्वतंत्र रूप से विचार नहीं कर पाए। (गाडविन, माल्थस और काॅण्डरसेट)। 

द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के पश्चात विश्व-व्यवस्था में व्यापक परिवर्तन आया। अमेरिका, नई विश्व-व्यवस्था का निर्विवाद नेता बन गया। अमेरिका और अमेरिकी लोगों के पास अकूत धन संपत्ति थी। वे विज्ञान, तकनीकी तथा शोध में भी अग्रणी हो चले थे। इसी दौर में नव सामाजिक आंदोलनों के अंतर्गत अमरीका में महिला-अधिकारों तथा  अश्वेतों के अधिकारों की लड़ाईयां सफलता पूर्वक लड़ी गईं। ऐसे समय में वहां के व्यावहारिक दर्शनशास्त्रियों ने भूख के प्रश्न को नैतिक प्रश्न के रूप में समझना आरंभ किया। 1960 के दशक के बाद से व्यावहारिक दर्शनशास्त्रियों ने धनी व्यक्तियों द्वारा गरीब व्यक्तियों की भूख और अतिशय गरीबी को समाप्त करने में उनके द्वारा नैतिक कर्तव्यों  का निर्धारण किया (पीटर सिंगर 1972., विलियम ऐकेन और लाफोलेटे, 1977)।  इन दर्शनशास्त्रियों का भी मुख्य जोर अकाल और भूख के सम्बन्ध पर था।

1981 के पूर्व तक अकाल के संदर्भ में प्रमुखता से तीन निष्कर्ष निकाले जाते थे। प्रथम, अकाल जनसंख्या में तीव्र वृद्धि के कारण उत्पन्न होते है। द्वितीय, अकाल का मुख्य कारण खाद्य उपलब्धता में ह्रास है। और तृतीय, भोजन की पहुंच से दूर ऐसे वंचितों की भूख को समाप्त करना धनी व्यक्तियों का नैतिक दायित्व है। हालांकि, दर्शनशास्त्रियों का एक वर्ग इस बात से सहमत नहीं था।

1981 में अमर्त्य सेन के ‘गरीबी और अकाल‘ विषयक शोध के प्रकाशन के बाद से इस सोच में व्यापक बदलाव आया है। इस शोध में सेन ने यह स्थापित किया कि औपनिवेशिक शासन के दौरान जो अकाल पड़े, उसका मुख्य कारण खाद्य उपलब्धता का ह्रास नहीं था; बल्कि, इसका वास्तविक कारण लोगों की खाद्य अधिकारिता में ह्रास होना था। आम धारणा के विपरीत इस शोध में प्रोफेसर सेन यह बताते है कि औपनिवेशिक शासन में पड़े अकालों के दौरान वास्तव में खाद्य उपलब्धता में वृद्धि देखने को मिलती है। एक बाजार व्यवस्था में भोजन पर हमारी अधिकारिता कई अलग-अलग प्रकार की अधिकारिताओं जैसे- क्रय आधारित अधिकारिता, प्रत्यक्ष उत्पादन आधारित अधिकारिता और उपहार या अनुदान आधारित अधिकारिताओं से निर्धारित होती है। सेन के इस शोध ने खाद्य सुरक्षा के प्रश्न को विकास नीतिशास्त्र में केंद्रीय स्थान प्रदान कर दिया(सेन 1981)।

1990 के दशक में खाद्य सुरक्षा के विचार में एक बार पुनः परिवर्तन आया। इस परिवर्तन को अमर्त्य सेन के ही स्वातंत्र्य, क्षमता, अवसर, कृत्यकारिता और एजेंसी विषयक दृष्टिकोण में तलाशा जा सकता है। अनेक प्रकार के स्वातंत्र्यों में एक स्वातंत्र्य भूख से मुक्ति भी है। भूख से मुक्ति, अन्य कई प्रकार के स्वातंत्र्यों के उपभोग की हमारी क्षमता का संवर्धन करता है जो आगे जाकर हमारे लिए एक बेहतर जीवन उपलब्ध करवा सकता है (सेन, 1999)। राज्य का यह कर्तव्य है कि वह लोगों के लिए सामाजिक-आर्थिक अवसरों का सृजन करें। इस प्रकार के अवसरों का सृजन करने में बाजार तंत्र भी उपयोगी साबित हो सकता है। खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने में एजेंसी, जिसे नागरिक समाज (यह व्यक्ति और राज्य के बीच मध्यस्थ के रूप में कार्य करता है) भी कहा जा सकता है, की भूमिका महत्वपूर्ण मानी जाने लगी है (सेन 1987,1995,1999,2010)। 

सेन कहते हैं कि चाहे नवोदित लोकतंत्र हो या स्थापित लोकतंत्र, उनमें कभी भी अकाल नहीं पड़ता; क्योंकि, लोकतंत्र में लोगों की अवाज सुनी जाती है, मीडिया और प्रचार के अन्य माध्यमों द्वारा सरकार पर दबाव बनाया जाता है और सरकारों को नियमित अंतराल पर चुनाव के माध्यम से अपनी नीतियों का अनुमोदन प्राप्त करना होता है। सेन ने 1999 में प्प्रकाशित अपनी किताब 'डेवलपमेंट एज़ फ्रीडम' में यह कहकर कि "विकास का प्रमुख लक्ष्य तथा उद्देश्य स्वातंत्र्य ही है" न केवल विकास नीतिशास्त्र की दिशा को बदला बल्कि, समग्र विकास के प्रश्न को ही नीतिशास्त्र के दायरे में ला दिया। 2010 में सेन ने ‘आइडिया ऑफ जस्टिस‘ में भूख सहित अन्य सामाजिक व्याधियों की समाप्ति को वास्तविक विश्व में न्याय की स्थापना (न्याय का होते हुए दिखना) की आवश्यकता के रूप में परिभाषित कर इसकी नैतिक पृष्ठभूमि को और सशक्त आधार प्रदान किया है।

उपर्युक्त विश्लेषण से स्पष्ट है कि सेन के 1981 के बाद के शोध कार्य ने विकास नीतिशास्त्र के अनेक विषयों में से खाद्य सुरक्षा के प्रश्न को एक महत्त्वपूर्ण नैतिक प्रश्न के रूप में स्थापित कर दिया। अब खाद्य सुरक्षा को समग्र मानव भलाई (मानव विकास) के एक घटक के रूप में माना जाने लगा है और समग्र मानव कल्याण को बढ़ाने में विभिन्न संस्थाओं की भूमिका को स्वीकार किया जाने लगा है।

1990 के दशक में भले ही खाद्य सुरक्षा का प्रश्न विकास नीतिशास्त्र के अनेक प्रश्नों में से एक प्रश्न के रूप में सम्मिलित हो गया हो; किन्तु' इसी दशक के उत्तरार्ध में बेन मेपहाॅम ने खाद्य नैतिकता को व्यवहारिक नीतिशास्त्र के अन्तर्गत एक स्वतंत्र विषय के रूप में पुनः स्थापित करने का प्रयास किया(मेपहाॅम, 1996)। खाद्य नैतिकता का उद्देश्य है कि सभी को पर्याप्त भोजन मिले। खाद्य सुरक्षा, खाद्य नैतिकता की पूर्वशर्त है; वहीं खाद्य सुरक्षा के लिए खाद्य नैतिकता महत्वपूर्ण है। वस्तुतः खाद्य सुरक्षा और खाद्य नैतिकता दोनों के साझा लक्ष्य हैं। 

खाद्य नैतिकता के अंतर्गत विचार किए जाने वालों प्रश्नों की सूची काफी लम्बी है और इसका इतिहास भी काफी पुराना है। प्रायः विश्व के सभी धार्मिक परम्पराओं में आहारिकी सम्बन्धी पुस्तक प्राप्त होती है। उन पुस्तकों में हमें क्या खाना चाहिए (भक्ष्य) और हमें क्या नहीं खाना चाहिए (अभक्ष्य) जैसे प्रश्नों पर विचार किया गया है। असल में हमें अब पता नहीं चलता कि हम जो खा रहे है, वो कैसे बना है, किसने बनाया है, क्या मिलाकर बनाया है। सार यह है कि हमारे द्वारा ग्रहण किए गए खाद्य का सीधा सम्बन्ध हमारे दीर्घकालिक स्वास्थ्य एवं जीवन प्रत्याशा से है। इसलिए खाद्य नैतिकता के अंतर्गत प्राचीन समय में विचार किये जाने वाले प्रश्न अब फिर से महत्वपूर्ण हो चले है।

खाद्य नैतिकता के अंतर्गत खाद्य उत्पादन का पक्ष भी खाद्य सुरक्षा की दृष्टि से कम महत्वपूर्ण नहीं है। खाद्य उत्पादन तंत्र दो प्रकार से हमारे स्वास्थ्य एवं जीवन प्रत्याशा को प्रभावित करता है। खाद्य उत्पादन का पक्ष दो महत्त्वपूर्ण प्रश्नों पर विचार करता है- प्रथम, हम जो कुछ भी खाते हैं, वह हमें किस प्रकार के खाद्य उत्पादन तंत्र से प्राप्त होता है; और द्वितीय, हम जो खाते है, उसका उत्पादन किस रीति से हुआ है(जवार्ट, 2000)। यदि हमारे खाद्य पदार्थ का उत्पादन अत्यधिक रसायनों के प्रयोग से हुआ है तो उसके उपभोग से हमारे स्वास्थ्य पर नकारात्मक असर पड़ता है। विकसित देशों में 'हम क्या खाते है', और 'जो खाते है वह कहां से आया है'  'खाद्यान्न उत्पादन किस रीति से हुआ है' के साथ यह प्रश्न भी महत्वपूर्ण हो गया है कि 'हमें कितना खाना चाहिए'। विश्व भर में खाद्य पदार्थों के वैश्वीकरण ने खाद्य जनित होने वाली बीमारियों का भी वैश्वीकरण कर दिया है। पिछले कुछ दशकों से खाद्य जनित बीमारियां इतनी बढ़ी हैं कि विश्व भर में कठोर खाद्य संरक्षा (फूड सेफ्टी) मानक बनाये जा रहे है। 

जनसंख्या और निर्वाह के साधनों के मध्य सम्बन्ध को आरंभिक अर्थशास्त्रियों के विचार गलत सिद्ध हो चुके हैं। ये अर्थशास्त्री मानते थे कि बढ़ती जनसंख्या का परिणाम हजारों-लाखों लोगों की बुभुक्षा तथा तद्जन्य मृत्यु के रूप में सामने आएगा क्योंकि खाद्य उत्पादन में भी ह्रासमान नियम लगता है; अर्थात एक समय के बाद खाद्य उत्पादन को नहीं बढ़ाया जा सकता है। वर्तमान में माल्थसवाद गलत सिद्ध हो चुका है। इसका कारण है कि कृषि के क्षेत्र में तकनीकी प्रगति और हरित क्रांति जैसे उपायों ने खाद्यान्न उत्पादन में क्रांति करके लाखों करोड़ों लोगों को भूख से मरने से बचा लिया। किन्तु, पिछले दो दशकों से बढ़ रही पर्यावरणीय चिन्ताओं के आलोक में खाद्य सुरक्षा संबंधी यह प्रश्न पुनः महत्त्वपूर्ण हो गया है। वस्तुतः गरीब देशों या अल्पविकसित देशों में अधिकांश लोग अपने रोजगार के लिए प्रत्यक्ष रूप से कृषि पर और अप्रत्यक्ष रूप से खाद्य उत्पादन तंत्र पर निर्भर करते है। खाद्य उत्पादन तंत्र एक ओर पर्यावरण पर संकट उत्पन्न करता है, तो दूसरी ओर स्वयं पर्यावरण से प्रभावित होता है।अब ऐसे साक्ष्य आ रहे हैं कि हमारा भोजन हमारे बढ़िया स्वास्थ के लिए महत्वपूर्ण है। खाद्य उत्पादन तंत्र से जुड़े कई अन्य प्रश्न भी उभरे हैं। उन प्रश्नों में मानवाधिकार जैसे- शिक्षा,स्वास्थ, जीविका, समानता अदि के प्रश्न भी जुड़ गए हैं।

पिछले कुछ सालों से यह देखने में आ रहा है कि जो छोटे एवं मझोले किसान हैं, उनकी कृषि लागत बढ़ गयी है और आय कम हो गई है, जिसके परिणामस्वरूप वे कृषि कार्य छोड़ने को विवश हैं। विशेष रूप से डव्ल्यूटीओ (विश्व व्यापार संगठन) के अस्तित्व में आने के पहले जहां किसानों की कभी अपनी उत्पादन प्रणाली हुआ करती थी और वह बीज,पानी तथा कृषि तकनीक आदि के प्रयोग के लिए स्वतंत्र था, अब वह इन आगतों के लिए बड़े-बड़े कृषि व्यापारिक उद्योगों पर आश्रित हो गया है। किसान अब आत्म-हत्या करने के लिए बाध्य हो रहे हैं। किसानों के कारपोरेट पर आश्रितता को देखते हुए विश्व भर में तमाम किसान और नागरिक संगठनों ने खाद्य संप्रभुता के लिए लड़ाई चालू की है। विश्व खाद्य उत्पादन तंत्र से जुड़ा हुआ यह सबसे बड़ा मुद्दा है(थामसन 2015., क्रैकर 2006)।

लेखक:
डॉ.अमित भूषण,
सहायक प्रोफेसर अर्थशास्त्र,
शासकीय तुलसी महाविद्यालय अनूपपुर
मध्यप्रदेश।
सम्पादन:
पीयूष त्रिपाठी,
सहायक प्रोफेसर राजनीतिशास्त्र
एवं सम्पादक 'एक शब्द अनेक अर्थ ब्लॉग'
बुलंदशहर, उत्तर प्रदेश।


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