अफगानिस्तान में अमरीका ने क्या पाया? डॉ. पुष्पेंद्र कुमार मिश्र
अफगानिस्तान में अमरीका ने क्या पाया?
डॉ. पुष्पेंद्र कुमार मिश्र,
सहायक प्रोफेसर राजनीति शास्त्र,
डी. एन. पी.जी.कॉलेज, बुलंदशहर
उत्तर प्रदेश।
बुलंदशहर से डॉ. पुष्पेंद्र मिश्र, फ़ाइल चित्र
लगभग 20 वर्षों तक अफगानिस्तान में टिके रहने के बाद; अफगानिस्तान के लिए की गई तमाम प्रतिबद्धताओं, दावों और लोकतन्त्र की पुनस्र्थापना के वादों की आधी-अधूरी सफलता के बीच संयुक्त राज्य अमरीका अब वहाँ से निकलने की तैयारी में है। उल्लेखनीय है कि विगत 14 अप्रैल को अमरीका के नव-निर्वाचित राष्ट्रपति जो बाइडेन ने यह ऐलान किया है कि वल्र्ड ट्रेड सेन्टर पर हमले की बरसी (11 सितम्बर) से पहले अफगानिस्तान से अमरीका की पूरी फौज वापस हो जाएगी। जो बाइडेन की यह घोषणा अमरीकी प्रशासन एवं तालिबान के बीच हुए समझौते से अलग है जिसमें कहा गया था कि अमरीकी फौजें मई तक अफगानिस्तान से वापस हो जाएंगी।
अमेरिकी राष्ट्रपति की यह घोषणा अनेक निहितार्थों को अपने में समेटे हुए है। अब जबकि यह स्पष्ट हो चुका है कि अमरीका शीघ्र ही अफगानिस्तान को खाली कर देगा और उसके सहयोगी देश (विशेषतः ब्रिटेन) भी इसमें उसका अनुगमन करेंगे, यह देखना आवश्यक होगा कि विगत 20 वर्षों के प्रत्यक्ष-परोक्ष युद्ध के बाद अमरीका ने अफगानिस्तान में क्या खोया और क्या पाया? अमरीका की सैनिक वापसी घोषणा के क्या निहितार्थ हैं और अफगानिस्तान के दो प्रमुख ध्रुवों - निर्वाचित अशरफ गनी सरकार एवं विद्रोही गुट तालिबान, के लिए इसमें क्या आशंकाएँ-संभावनाएं उभर रही हैं?
अफगानिस्तान से अमरीकी सेना के वापस जाने के निहितार्थों पर विचार करने से पहले यह जानने की भी आवश्यकता है कि अमरीका का अफगानिस्तान में आने का क्या उद्देश्य था? वास्तव में 2001 में वल्र्ड ट्रेड सेन्टर पर अल कायदा के आतंकियों द्वारा किए गए हमले (9/11) के बाद अमेरिकी फौज के अफगानिस्तान में कई उद्देश्य थे। पहला, अफगानिस्तान की सत्ता से तालिबान को बाहर करना क्योंकि तालिबान ने अल कायदा और उसके सरगना ओसामा बिन लादेन को शरण दी थी। दूसरे, अफगानिस्तान में अपेक्षाकृत उदार और लोकतान्त्रिक सरकार की स्थापना करना जिसके माध्यम से उदारवादी मूल्यों का संरक्षण-पोषण किया जा सके तीसरे, 1980 के दशक में सोवियत संघ के अफगानिस्तान में हस्तक्षेप के बाद से ही लगातार किसी ना किसी प्रत्यक्ष-परोक्ष संघर्ष में उलझे ‘बदहाल’ अफगानिस्तान का पुनर्निर्माण करना ताकि दक्षिण एशिया के इस राष्ट्र को इस्लामी कट्टरपंथ और मानवता विरोधी शक्तियों के चंगुल में पड़़ने के किसी भी संभावित खतरे से बचाया जा सके। इस सबके बावजूद अमरीका का प्रारम्भिक और मूलभूत उद्देश्य अलकायदा के सरगना ओसामा बिन लादेन का सफाया करना था जिसने अपने समर्थको के माध्यम से 9/11 की घटना को अंजाम दिया था। अपने इन उद्देश्यों में अमरीका एक हद तक सफल भी रहा।
लगभग 10 साल तक अफगानिस्तान तथा पाकिस्तान में की गयी कार्यवाहियों के बाद 2 मई 2011 को पाकिस्तान के एबटाबाद में अलकायदा के मुखिया ओसामा बिन लादेन को अमरीकी फौजियों ने मार गिराया। अलकायदा को बुरी तरह कुचला गया तथा तालिबान काबुल की सत्ता से बेदखल कर दिया गया।
साभार: इंटरनेट से लिया गया चित्र
अफगानिस्तान कीे कबीलायी सामाजिक संरचना के बीच लोकतांत्रिक ढंग से चुनी गई सरकार के माध्यम से अफगानिस्तान में उदारवादी मूल्यों को स्थापित करने तथा आधुनिक अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण के संकल्प को लेकर बड़े पैमाने पर विकास योजनाएं इस बीच अमरीका द्वारा संचालित की गईं। किन्तु इस सबके बावजूद सूक्ष्म दृष्टि से देखने पर ज्ञात होता है कि अमरीका अफगानिस्तान में अपनी योजनाओं में पूर्णतया सफल नहीं रहा है।
काबुल की सत्ता से तालिबान को बेदखल किए जाने के बावजूद भी तालिबान को पूरी तरह समाप्त नहीं किया जा सका। आज भी अफगानिस्तान के एक बड़े भू-भाग पर तालिबान का कब्जा है। विगत 20 वर्षों में तालिबान ने अफगानिस्तान में न सिर्फ अपनी ताकत बढ़ाई है बल्कि बदलते वैश्विक परिदृश्य के बीच उसने अपनी नीतियों और कार्यवाहियों में भी परिवर्तन किया है। ओसामा बिन लादेन के मारे जाने के बावजूद भी अफगानिस्तान में कट्टरपंथी विचारधारा को पूरी तरह नेस्तनाबूत नहीं किया जा सका क्योंकि उसे पड़ोसी देश पाकिस्तान से निरन्तर प्रत्यक्ष-परोक्ष समर्थन/प्रोत्साहन मिलता रहा है। अफगानिस्तान की लोकतांत्रिक सरकार भले ही यह दावा करे कि उसकी सम्प्रभुता पूरे अफगानिस्तान पर है परंतु वर्तमान समय में यह बात किसी से भी छिपी नहीं है कि आमने-सामने की लड़ाई में अफगानिस्तान में तालिबान का पलड़ा लोकतांत्रिक सरकार की तुलना में हमेशा भारी रहा है।
वस्तुतः 2001 में अफगानिस्तान में आने के बाद से ही अमरीका के लिए अलकायदा-तालिबान के विरूद्ध यह युद्ध बहुत महंगा पड़ा है। अफगानिस्तान में बने रहने के लिए अमरीका ने एक बड़ी कीमत चुकाई है। अनेक अनुमानों के अनुसार अफगानिस्तान में नाटो सेनाओं की उपस्थिति के चलते प्रतिवर्ष अमरीका लगभग चार अरब डॉलर खर्च कर रहा है। अमेरिकी रक्षा मंत्रालय के अनुसार इस युद्ध पर 2001 से 2019 के बीच लगभग 800 अरब अमरीकी डॉलर खर्च हुए हैं जबकि अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण सम्बन्धी विकास परियोजनाओं में अमरीका ने लगभग 50 अरब डॉलर खर्च किए हैं। मोटे तौर पर अमरीका द्वारा अफगानिस्तान में किया गया कुल व्यय लगभग एक हजार अरब डॉलर के आसपास है।
अमरीका को अफगानिस्तान में बने रहने की कीमत सिर्फ धन के रूप में ही नहीं चुकानी पड़ रही है बल्कि विगत 20 वर्षों में 2,300 से अधिक अमेरिकी सैनिक अफगानिस्तान में शहीद हो चुके हैं जबकि इस लड़ाई में घायल होने वाले सैनिकों की संख्या लगभग 21,000 है। इसी प्रकार ब्रिटेन सहित अन्य नाटो देशों के भी सैकड़ों सैनिक इस लड़ाई में मारे गए हैं अथवा घायल हुये हैं। इस सब का एक बड़ा दुष्प्रभाव अमरीका के करदाताओं पर पड़ा है जिन पर लगभग एक ट्रिलियन डॉलर का इस दौरान अतिरिक्त बोझ डाला गया। ‘धन और जन’ के अतिरिक्त अमरीका ने इस लड़ाई में उलझे रहने के कारण वैश्विक शक्ति संतुलन में अपनी साख भी गंवाई है। एक ओर अमरीका तालिबान को पूरी तरह हरा नहीं पाया और दूसरी ओर एशियाई राजनीति में उसने रूस को हस्तक्षेप करने का अवसर भी दिया है। लंबे समय तक इराक से लेकर अफगानिस्तान की समस्याओं में उलझे रहने के कारण अमरीका अब उस तरह की महाशक्ति नहीं है। अमरीका में गैर-जरूरी सैन्य व्यय के कारण गरीबी, सामाजिक टकराव तथा असमानता बढ़ी है जिसका एक नकारात्मक प्रभाव अमेरिकी लोकतंत्र पर पड़ रहा है।
साभार: इंटरनेट से लिया गया चित्र
चीन, रूस और भारत जैसे देशों के उभार ने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि आने वाले समय में एकछत्र अमरीका की चैधराहट नहीं चलेगी और विश्व व्यवस्था में शक्ति संतुलन को स्थापित करने के लिए नए खिलाड़ी हर भौगोलिक क्षेत्र में तैयार हो रहे हैं/हो चुके हैं। यद्यपि अमरीका इस बात के लिए अपनी पीठ थपथपा सकता है कि अफगानिस्तान में उसके हस्तक्षेप के बाद अफगानिस्तान की भूमि से उस पर किसी भी प्रकार का आतंकी हमला नहीं हुआ है तथा उसने विदेशी भूमि से अपने विरुद्ध चल रहे आतंकी नेटवर्क को ध्वस्त करने में सफलता प्राप्त की है तो भी यह माना जाएगा कि अफगानिस्तान में अमरीका ने जो कुछ भी प्राप्त किया है उसकी उसे बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ी है।
अमरीका द्वारा अफगानिस्तान से निकलने की घोषणा के बावजूद भी कुछ महत्वपूर्ण बिंदु शेष हंै जिनका समाधान होना बाकी है। सितंबर 2020 से ही अफगानिस्तान की निर्वाचित सरकार तथा तालिबान के बीच वार्ताओं में मुख्यतः दो मुद्दों का समाधान नहीं हो पाया है- पहला, अफगानिस्तान में हिंसा को घटाना तथा दूसरा, भविष्य के अफगानी राज्य के गठन व राजनीतिक व्यवस्था का निर्धारण। इस सन्दर्भ में अमरीका तथा तालिबान के बीच हुये समझौते में भी दो बिन्दु ध्यान देने योग्य हैं- पहला, इस समझौते में अफगान सरकार को ‘एक पक्ष’ के रूप में सम्मिलित न किया जाना व दूसरा, आश्चर्यजनक रूप से तालिबान द्वारा अफगान सरकार के सुरक्षा बलों पर हमले रोकने की कोई प्रतिबद्धता व्यक्त न किया जाना। 2020 के बाद से ही तालिबान द्वारा अफगान सुरक्षा बलों पर किए जाने वाले इस प्रकार के हमलों में तेजी आई है। उल्लेखनीय है कि इन हमलों के शिकार लोगों में नागरिकों विशेषतः महिलाओं की संख्या अधिक है। इसके बावजूद अमरीका अफगान सरकार पर निरंतर दबाव डाल रहा है कि वह तालिबान से बात करें और किसी अंतिम समझौते पर जल्दी पहुंचे।
अफगानी सरकार तथा तालिबान के बीच विवाद का दूसरा मुद्दा अफगानिस्तान के भविष्य के अभिशासन को लेकर है। जिसके अंतर्गत अफगानिस्तान राज्य की संरचना के साथ ही अफगानिस्तान के नागरिकों विशेषतः महिलाओं को दिए जाने वाले अधिकारों को लेकर विवाद है। इस संदर्भ में तालिबान ‘इस्लामी व्यवस्था आधारित’ एक स्वतंत्र, संप्रभु, संगठित, विकसित और मुक्त अफगानिस्तान चाहता है जिसमें सभी लोग बिना किसी भेदभाव के सहभागिता कर सकें। दूसरे, तालिबान लोगों को परिस्थिति-आधारित मौलिक अधिकार देने की भी बात कर रहा है जैसे - इस्लामी कानूनों द्वारा महिलाओं को दिए गए समस्त अधिकारों तथा इस्लामिक सिद्धांतों और राष्ट्रीय हितों को दृष्टिगत रखते हुए लोगों को विचार-अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता आदि। इसके विपरीत अफगान नेतृत्व अफगानी लोकतांत्रिक संस्थाओं के संरक्षण के लिए अपनी सहमति देता रहा है जिसमें इस्लाम को राज्य का धर्म तो बनाया गया है लेकिन विधायी और राष्ट्रीय नीति निर्धारण को धार्मिक मान्यताओं पर आधारित नहीं किया गया है। दोनों पक्षों के बीच विवाद का तीसरा मुद्दा एक ‘अंतरिम सरकार’ को लेकर भी है। अफगान नेतृत्व निरंतर एक अंतरिम सरकार के गठन पर जोर देता रहा है तथा स्थाई युद्धविराम की वकालत करता है जबकि अंतरिम सरकार को लेकर तालिबान का मत इसके विपरीत है तथा वह इस प्रकार के स्थायी युद्ध विराम से लगातार इनकार करता रहा है।
उपरोक्त तथ्यों के आधार पर यह कहना मुश्किल है कि परस्पर वार्ता का कौन सा ढांचा काबुल की सरकार और तालिबान दोनों को मान्य होगा। वस्तुतः तालिबान अफगान नेतृत्व के साथ अपनी वार्ता को इतना लंबा खींचना चाहता है कि अंतर्राष्ट्रीय फौजें अफगानिस्तान से चली जाएं और उसके बाद वह युद्ध क्षेत्र में ताकत के सहारे अपने लाभ को भुना सके। इन परिस्थितियों में अमरीका के पास अफगानिस्तान से निकलने के लिए विकल्प सीमित हैं। यदि अमरीका ‘शांति के लिए-किसी भी कीमत पर’ बिना किसी स्थाई समाधान के अफगानिस्तान को छोड़ता है तो अफगानिस्तान में 1990 के दशक वाली अशांति पुनः लौटने की आशंका है जिसका पूरा उत्तरदायित्व अमरीका का होगा। इन तमाम विरोधाभासी तथ्यों, तर्कों और समीकरणों के बीच अफगानिस्तान का भविष्य क्या होगा यह कहना मुश्किल है किंतु काबुल को उसके हाल पर छोड़ कर अमरीका के वहां से बाहर निकलने का निर्णय अफगानिस्तान एवं तदन्तर विश्व के भविष्य की दृष्टि से ‘सुखद’ नही माना जाएगा।
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